May 6, 2024

छत्तीसगढ़ के लोगों ने सत्ता को बदल कर भाजपा के चुनावी स्लोगन को चरितार्थ कर दिया…

रायपुर। और वाकई ए दारी छत्तीसगढ़ के लोगों ने सत्ता को बदल कर भाजपा के चुनावी स्लोगन को चरितार्थ कर दिया। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की गारंटी पर मोदी की गारंटी भारी पड़ गई। कांग्रेस सरकार के 13 मंत्रियों में से 12 मंत्रियों और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दीपक बैज का पिछड़ जाना इस बात की तस्दीक करता है कि छत्तीसगढ़ में यहां की सरकार के खिलाफ कितना तगड़ा अंडर करंट दौड़ रहा था। पिछले चुनाव में जीती गई सीटों से इस बार सीधे आधी पर आ जाना इस बात का प्रमाण है कि छत्तीसगढ़ सरकार लोगों का ‘भरोसा बरकरार’ रख पाने में नाकाम रही। ये नतीजे इस बात का साफ संकेत देते हैं कि धान के कटोरे में हार-जीत में अहम भूमिका निभाने वाले किसानों ने इस बार कांग्रेस के ‘वचन’ की बजाए भाजपा के ‘संकल्प’ पर भरोसा जताया है। दरअसल पिछली बार धान के जिस मुद्दे ने कांग्रेस को प्रचंड जीत दिलाई थी उसे भाजपा इस बार अपने पक्ष में करने में कामयाब रही। किसानों ने जब दोनों दलों के घोषणा पत्र के नफा-नुकसान का आंकलन किया तो उसे भाजपा का घोषणा पत्र ज्यादा फायदेमंद नजर आया। कांग्रेस की कर्जमाफी के दांव को भाजपा दो साल के एकमुश्त बोनस की काट से बेअसर करने में सफल रही। ये भाजपा की रणनीतिक समझदारी रही कि उसने धान के बोनस के मुद्दे पर मिली पिछली हार से सबक लेते हुए इस बार उसे ही अपना प्रमुख हथियार बना लिया।

भाजपा की जीत में महिलाओं की भी अहम भूमिका रही। भाजपा ने छत्तीसगढ़ की महिलाओं को महतारी वंदन योजना के तहत हर महीने हजार रुपए देने का वादा किया था, जिसने कांग्रेस को बैकफुट पर आने को मजबूर कर दिया। भाजपा ने मतदान से पहले ही इस योजना के फार्म महिलाओं से भरवाने शुरू कर दिए थे। कांग्रेस जब तक इस महतारी वंदन योजना के असर को समझ कर भाजपा से ज्यादा राशि देने का ऐलान कर पाती, तब तक काफी देर हो चुकी थी। शराबबंदी के वादे से मुकर जाने से महिलाएं तो पहले से ही मुंह फुलाए बैठी ही थीं।

इस चुनाव में कांग्रेस के पास छत्तीसगढ़ियावाद के तौर पर एक बड़ा हथियार था। लेकिन लगता है कि छत्तीसगढ़ियावाद का दांव विकासवाद के आगे फीका पड़ गया। भाजपा नेता इस बात को समझाने में कामयाब रहे कि क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर विकासकार्यों की अनदेखी नहीं की जा सकती। क्षेत्रवाद की राजनीति के अपने खतरे होते हैं। क्योंकि जब किसी पार्टी के समर्थक सोशल मीडिया में क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर दूसरे प्रांत के निवासियों को परदेशिया बताकर उनके खिलाफ विद्वेशात्मक तंज कसते हैं तो वो अप्रत्यक्ष रूप से उन परदेशियों को उस पार्टी के खिलाफ लामबंद भी कर रहे होते हैं। भाजपा ने छत्तीसगढ़ियावाद की काट के तौर पर हिंदुत्व के अपने आजमाए दांव को चला जो सफल रहा। हिंदुत्व के दांव को परिणामकारी बनाने में भुवनेश्वर साहू की सांप्रदायिक हिंसा में हुई हत्या और कवर्धा में भगवा के अपमान के मुद्दे ने अहम रोल निभाया। भाजपा ने भुवनेश्वर साहू के पिता ईश्वर साहू को साजा से मंत्री रविंद्र चौबे के खिलाफ उम्मीदवार बनाकर उसे हिंदुओं के साथ हुए अन्याय के मुद्दे से जोड़ दिया। वहीं भाजपा ने भगवा ध्वज मुद्दे को प्रखरता से उठाने वाले विजय शर्मा को कवर्धा से मंत्री मोहम्मद अकबर के खिलाफ मैदान में उतार कर उस इलाके में ध्रुवीकरण की जमीन तैयार कर दी। ना केवल अमित शाह उस इलाके में तीन बार सभा करने आए बल्कि भाजपा के हिंदुत्ववादी फायरब्रांड नेता हिंमत बिस्वा सरमा और योगी आदित्यनाथ की भी यहां सभाएं कराई। नतीजा ये हुआ कि ना केवल रविंद्र चौबे और मोहम्मद अकबर चुनाव हारे बल्कि उनके इलाके से सटे दूसरे इलाकों में भी ध्रुवीकरण ने भाजपा के पक्ष में माहौल तैयार कर दिया।

भाजपा की इस बात की तारीफ की जानी चाहिए कि चुनाव के चंद महीने पहले जो पार्टी बैकफुट पर नजर आ रही थी, वो चुनाव आते-आते ना केवल मुकाबले पर आ गई बल्कि उसने कांग्रेस को बैकफुट पर आने को मजबूर कर दिया। फ्री बीज की मुखालफत करने वाली बीजेपी ने हालात को भांपते हुए जहां उसने भी रेबड़ी बांटने से परहेज नहीं किया वहीं उसने महादेव एप के मुद्दे पर कका को तीस टका कमीशन के अनुप्रांसिक आरोप के जरिए घेर लिया। इसके अलावा भाजपा ने गोबर, गोठान जैसी छत्तीसगढ़ सरकार की फ्लैगशिप योजना के साथ ही पीएससी नियुक्ति पर भी भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर समूची सरकार को सुरक्षात्मक लहजे में आने को मजबूर कर दिया।

बहरहाल छत्तीसगढ़ का नतीजा राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए एक केस स्टडी के रूप में पढ़ाया जा सकता है कि एक हारी हुई बाजी को कैसे जीता जा सकता है। भाजपा ने साबित कर दिया कि हारी बाजी को जीतना हमें आता है।

मुख्य खबरे

error: Content is protected !!